डा. संकल्प मिश्र
यज्ञ शब्द सुनते ही हमारे मानस पटल पर यज्ञ-कुण्ड, यज्ञ-मण्डप, यज्ञ-पात्र, याज्ञिक-क्रिया, याज्ञिक वातावरण इत्यादि का अनायास चित्रांकन स्वत: स्फुरित हो जाता है। यज्ञ की अग्नि से निकलता हुआ पवित्र धूम जो हमारे बाह्य एवम् अन्तस् को भी शुचिता प्रदान करता है वह यज्ञ क्या है? विश्व के सर्वथा प्राचीनतम ग्रन्थ वेद एवं एतत् सम्बद्ध साहित्य का इस विषय में क्या प्रमाण है?
यज्ञ शब्द याग के अर्थ को ही व्यक्त करता है। याग का लक्षण द्रव्यं देवता त्याग: है। देवता को अभिलक्षित(उद्देश्य) करके शास्त्र विहित द्रव्य जैसे – व्रीहि(छिलके सहित चावल जैसा), यव (जौ), पुरोडाश(अन्न को पीस कर उससे तैयार कर कपाल पर सिद्ध किया जाने वाला द्रव्य) एवम् आज्य(घी) आदि पदार्थों(द्रव्य) का विधि अनुसार मन्त्र सहित, उपांशु रीति से नियत मात्रा में त्याग ही यज्ञ है।
यज्ञ मुख्यत: दो प्रकार का होता है – स्मार्त एवं श्रौत। शास्त्रपरम्परा के अनुसार कोई भी व्यक्ति अनधिकृत अथवा अधिकृत होते हुए स्वत: प्रेरणा से यदृच्छया अग्नि प्रदीप्त कर उस प्रदीप्त अग्नि में आहुति दे ऐसी व्यवस्था नहीं है। यज्ञ सम्पादन के कुछ विशेष नियम हैं। जैसे – जो व्यक्ति स्मार्त अग्नि जिसे आवसथ्य अग्नि कहते हैं, उसका आधान(प्रतिदिन अग्नि परिचर्या का विधिपूर्वक संकल्प लेना) न कर ले तब तक श्रौत यज्ञ नहीं कर सकता। साथ ही इसमें एक विशेषता यह है कि अविवाहित, विधुर, परित्यक्तस्त्रीक(जिसने पत्नी को छोड दिया है) सारतया एकाकी पुरुष को यज्ञ करने का अधिकार शास्त्रपरम्परा में नहीं है। अत: पति-पत्नी को साथ ही यज्ञ कर्म में अधिकार प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त बहुत से नियम हैं, परन्तु यह नियम पालन नितान्त आवश्यक है।
प्राकृतिक योग के अंश के रूप में उपर्युक्त विषय को ग्रहण किया जा सकता है। वस्तुत: वैदिक साहित्य में सर्वत्र सृष्टि के क्रम को पुष्ट किया गया है। परिणामत: यज्ञ पात्रों को यज्ञ वेदि में स्थापित करते समय एक पात्र में स्त्री एवं दूसरे में पुरुष को कल्पित करते हुए साथ में रखा जाता है। जिससे यथा समय दोनों के मध्य मैथुन हो जिससे एक नवीन अपूर्व की उत्पत्ति हो सके। जैसा कि शतपथब्राह्मण में पात्रासादन(पात्रों को आवश्यकतानुसार यज्ञवेदि में जमाना) के क्रम में वचन प्राप्त होता है – द्वन्द्वं पात्राण्युदाहरति – शूर्पं चाग्निहोत्रहवणीं च ..। इस प्रकार एक पुरुषभाव कल्पित से अन्य स्त्रीभाव कल्पित पात्र के मध्य में संसर्ग होने से वह अपूर्व का उत्पादक होगा। यही विधिसम्मत उपदेश है। यदि पुरुष-पुरुष कल्पित पात्र अथवा स्त्री-स्त्री कल्पित पात्र को एक साथ रख दिया जाय तो यह सृष्टिक्रम के पूर्णतया विपरीत होगा। लोक में हम देखते हैं कि सामान्यतया पुरुष का विवाह स्त्री से होता है, जिसके पृष्ठ में उद्देश्य संतान उत्पन्न(सृष्टि) करके पितृऋण से मुक्त होना है। यह केवल आनन्द अथवा संभोग हेतु नहीं है। यह विषय आयुर्वेद एवं योगशास्त्र के विविध ग्रन्थों में भी सुस्पष्ट है कि रति की मात्रा नियत होनी चाहिए तब ही वह कल्याणकारी क्रिया के अन्तर्गत समाविष्ट होगी।
उपर्युक्त यज्ञ करने के कालविशेष के नियम का पालन करना आवश्यक है। गृह्यसूत्रों एवं श्रौतसूत्रों की परम्परा के भेद के आधार पर यह प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व उषस् काल में अथवा सूर्योदयोपरान्त, सायंकाल गोधूलि वेला अथवा सूर्यास्त के समय पर किया जाता है। इस कालविशेष का पालन करने पर प्रतिदिन आचरण करने पर ही यज्ञ अपूर्वोत्पादक(जिसकी उत्पत्ति पूर्व में नहीं हुई उसका उत्पादक) होता है, अन्यथा नहीं। जिस प्रकार से लोक में किसी व्यक्ति को जितना प्रेम किया जाता है यथासमय उसे वैसा ही प्राप्त होता है, क्योंकि प्रसिद्धि है – प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अत: अग्निपरिचर्या आजीवन अथवा संकल्पित अवधि तक करना सामान्य विषय नहीं है। इस हेतु यज्ञकर्ता अर्थात् यजमान को प्रतिदिन दिनचर्या के अङ्गों जैसे – प्रात: उत्थान-रात्रिशयन, प्रवास, भोजन-काल, भोजन-स्वरूप, लोक-व्यवहार, व्यायाम आदि समस्त दैनिक विषयों को नियन्त्रित रूप से करना आवश्यक हो जाता है इससे वह स्वत: योगी के समान जीवन जीता है। परिणामत: आरोग्य प्राप्त कर स्वस्थ एवं सुदीर्घ-जीवन को प्राप्त करता है।
इस प्रकार जीवन यापन करने से मन शिव-संकल्प से युक्त हो जाता है। वेद मन्त्रों से कामना की जाती है – तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु अर्थात् मेरा मन कल्याणकारी संकल्प वाला हो। इस प्रकार दैनिक यज्ञ के आचरण से इन्द्रियसंयम, अनुशासन, चित्तवृत्तिनिरोध आदि स्वत: घटित होने लगते हैं।
भारतीय परम्परा में अनुस्यूत जीवनचर्या यज्ञ-अनुष्ठान, व्रत इत्यादि में स्वत: योग के ऐसे तत्त्व समाहित हैं, जो मानव-कल्याण हेतु परमावश्यक है। अत: पारम्परिक प्रवृत्तियों के यथाविधि अनुपालन से निश्चय ही मनुष्य का जीवन योगमय एवं आरोग्यवर्धक बनेगा।
सहायक आचार्य
वेद एवं व्याकरण विभाग