मीडिया, समाज और संस्कृति
डॉ. प्रदीप कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर
मीडिया, समाज और संस्कृति का परस्पर गहरा संबंध है। मीडिया जिस तरह की विषय सामग्री प्रस्तुत करता है उसी के अनुरूप समाज का निर्माण होता है और धीरे-धीरे एक संस्कृति विकसित होती है। हर दौर में मीडिया की अपनी एक विशेष भूमिका रही है और समाज एवं राष्ट्र के निर्माण में इसका योगदान अतुलनीय रहा है। लेकिन बाजारीकरण के इस दौर में मीडिया का चरित्र भी बदला है और इसका सीधा असर समाज और संस्कृति पर भी देखने को मिल रहा है। मीडिया स्वामित्व के नए मॉडल से आम जनमानस के मुद्दे गौण हो गए हैं और व्यापारिक हित एवं राजनीतिक हस्तक्षेप के दखल से लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ दरकने लगा है। हालांकि सोशल मीडिया के मंच ने मीडिया स्वामित्व के मॉडल को चुनौति देते हुए नए आयाम स्थापित किए हैं लेकिन व्यापक सामाजिक बदलाव के लिए यह जरूरी है कि सोशल मीडिया के साथ-साथ मुख्यधारा का मीडिया भी पत्रकारिता के उच्च आदर्शों का अनुकरण करे।
जनसंचार माध्यम आम जनमानस की राय या यूं कहें पब्लिक ओपिनयन बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। नियमित रूप से समाचार चैनल देखने वाले या समाचारपत्र पढ़ने वाले दर्शक या पाठक किसी नीति या व्यक्ति विशेष के बारे में एक धारणा बना लेते हैं। यह धारणा वास्तव में कितनी सही या गलत है यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाचार चैनलों या समाचारपत्रों ने अपनी विषय सामग्री तैयार करते वक्त कितनी निष्पक्षता दिखाई है। यहीं पर मीडिया स्वामित्व का पहलू काफी अहम हो जाता है। अगर मीडिया के बड़े हिस्से पर किसी विशेष राजनीतिक दल या सत्ताधारी पार्टी का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव है तो यह निश्चित ही इसकी संपादकीय नीति को प्रभावित करेगा। ऐसे हालात में ज्यादातर जनसंचार माध्यम सरकार के मुखपत्र बनकर रह जाते हैं और पत्रकारिता और जनसंपर्क का अंतर खत्म होता चला जाता है। ग्राउंड रिपोर्टिंग न होने से आम जनता के मुद्दे पीछे छूट जाते हैं और समाचार चैनल के स्टूडियो में बैठकर ऐसी न्यूज़ स्क्रिप्ट लिखी जाती है जिसका वास्तविकता से कोई सरोकार नहीं होता।
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि सामाजिक जागरूकता की अलख जगाने में मीडिया की भूमिका क्रांतिकारी हो सकती है। स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष के दौरान भी मीडिया ने दीपक का काम किया और अपनी लौ से लोगों में सामाजिक कुरीतियों और अंग्रेजी हुकुमत से लड़ने का साहस पैदा किया। लेकिन अगर मीडिया निष्पक्ष नहीं रहेगा तो समाज में भ्रम की स्थिति पैदा होगी। विशेषकर तब, जब मीडिया का एक धड़ा एक घटना को अलग तरीके से पेश कर रहा है और दूसरा इसके बिल्कुल विपरीत। ऐसे में पाठक या दर्शक कन्फ्यूज हो जाता है और समझ नहीं पाता कि सही क्या है और गलत क्या है। विशेष रूप से मुख्यधारा का मीडिया इस भूमिका में होता है तो इसके परिणाम काफी घातक होते हैं। इस परिस्थिति में एक विघटित समाज का जन्म होता है और एक ऐसी संस्कृति विकसित होती है जिसमें कई विकृतियां पैदा हो जाती हैं।
यहीं पर मीडिया लिटरेसी की भूमिका शुरू होती है। मीडिया के क्रियाकलापों पर पैनी नजर रखना, विषय सामग्री को तर्क के तराजू पर तौलना और एजेंडा सेंटिंग और प्रोपगैंडा को समझने का कौशल ही मीडिया लिटरेसी है। भारत जैसे देश में, जहां इतनी अशिक्षा, गरीबी और आर्थिक असमानता है, मीडिया लिटरेसी का प्रतिशत स्तरीय होना लगभग नामुमकिन है। यहां हैरानी की बात यह है कि आपके आसपास ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने पारंपरिक उच्च शिक्षा तो हासिल की है लेकिन इनकी मीडिया लिटरेसी का स्तर निम्न है। इनमें मीडिया की विषय सामग्री का मूल्यांकन एवं विश्लेषण करने की समझ नहीं है और बड़ी आसानी से एजेंडा सेटिंग और प्रोपेगैंडा के शिकार हो जाते हैं। हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर घटी कई घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि मीडिया डिबेट्स में जो मुद्दे हावी रहते हैं सार्वजनिक स्थानों पर उन मुद्दों पर खूब बहस होती है और कई बार यह बहस जानलेवा भी हो जाती है। विशेष रूप से विविध धर्म, संस्कृतियों वाले भारत जैसे देश में अगर मीडिया जाति, धर्म के मुद्दों को ज्यादा तवज्जो दे और तौड़-मरौड़कर सनसनी बनाकर पेश करे तो सामाजिक तानाबाना बिगड़ने की नौबत आ जाती है।
मीडिया लिटरेसी के साथ-साथ सिविल सोसायटी की भी इसमें अहम भूमिका है। अगर मीडिया कुछ ऐसा करता है जिससे सामाजिक सौहार्द को ठेस पहुंचती है तो सिविल सोसायटी को आगे आना चाहिए। सिविल सोसायटी में प्रबुद्धजन शामिल होते हैं और ये समाज में ओपिनियन लीडर की भूमिका भी निभाते हैं। ऐसे मंे इन प्रबुद्धजनों की यह सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है कि वे मीडिया पर पैनी नजर बनाकर रखें और एक स्वस्थ समाज और परिष्कृत संस्कृति बनाने में अपना योगदान दें। हाल के दिनों में हमंे कई ऐसे मामले देखने को मिले जब मीडियाकर्मियों को पक्षपातपूर्ण रवैये के कारण फील्ड रिपोर्टिंग करते वक्त लोगों के तीखे सवालों का सामना करना पड़ा। लेकिन मीडिया पर यह दबाव औपचारिक, सुनियोजित और संगठित तरीके से बनाया जाए तो समाज के लिए ज्यादा बेहतर होगा।
पूरा लेख पढ़ने के लिए कृपया पत्रिका की सदस्यता लें…