डा. संकल्प मिश्र
भारतीय परम्परा में यज्ञ क्रियाविधि की सम्पूर्णता जल के बिना अपूर्ण मानी जाती है। हम जानते है कि जल पंच महाभूतों में से एक होने के साथ ही याज्ञिक क्रियाओं की विशिष्ट विधि सम्पादनार्थ प्रयोग किया जाता है। यह प्रयोग जल के विशिष्ट महत्त्व की ओर संकेत करता है।
पुरा काल में किसी यज्ञ के आरम्भ में जब यजमान व्रतग्रहण करता था, तो वह जल के स्पर्श से ही दृढता को प्राप्त करता था। श्रुति परम्परा में वचन प्राप्त होता है आपो वै वज्र: अर्थात् जल वज्र है। ज्ञातव्य विषय यह है कि वज्ररूपी जल से व्रतग्रहण का क्या सम्बन्ध परिणामत: वज्रवत् जल की मजबूती ही व्रत की दृढता का आधार है जो कि यजमान को व्रत को अपने यज्ञ की समाप्ति पर्यन्त किये जाने वाले आचरण को दृढ रखने हेतु प्रेरित करती है। प्रश्न यह उठता है कि जल का स्पर्श अत्यन्त सुकोमल है तो जल वज्र कैसे हुआ? यहां समझने वाली बात है कि यदि किसी पहाड के हिस्से विशेष पर भी लगातार जल का पतन हो तो वह एक दिन खण्डित हो जाता है। अत: जल के भीतर वज्रवत् सामर्थ्य विद्यमान है।
प्रकृत सन्दर्भ में एक विशेष तथ्य यह भी है कि शतपथब्राह्मण नामक यजुर्वेद के प्रथम ऋषिकृत् व्याख्यान ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्रुति प्राप्त होती है –पवित्रं वाऽआप: पवित्रपूतो व्रतमुपायानीति तस्माद्वाऽअपऽउपस्पृशति। भाव यह है कि जल पवित्र है अत: पवित्र के स्पर्श से पवित्रता को प्राप्त कर व्रतग्रहण करना चाहिए क्योंकि देवत्व पवित्रता के सापेक्ष्य शीघ्र घटता है। अत: मेध्य(पवित्र) जल के स्पर्श से पवित्र होकर देवसम्बन्धी कर्म(यज्ञ) में प्रवृत्त होना ही समुचित होगा।
श्रौतयज्ञ में अपां प्रणयन(जल को प्रणीता नामक पात्र में धारण कर ले जाकर निर्धारित स्थान पर स्थापित करना) की क्रिया नियमत: की जाती है। इस क्रिया में अध्वर्यु नामक पुरोहित विशेष जलपात्र का प्रणयन पश्चिम दिशा में स्थित गार्हपत्य प्रदेश से पूर्व दिशा में स्थित आहवनीय प्रदेश के उत्तर दिशा में करता है और वहां पात्र की स्थापना करता है। जल का वाचक आपशब्द संस्कृत भाषा में नित्य बहुवचन का वाचक होकर स्त्रीलिंग में है। साथ ही जहां प्रणीता(जल से पूर्ण पात्र) रखा जाता हैवहां आहवनीयाग्नि(कुण्ड विशेष में प्रज्ज्वलित अग्नि) का सान्निकट्य(सामीप्य) है। अग्नि पुरुष स्वरूप है, जल स्त्री स्वरूप है। अत: दोनों को पास में स्थापित करने से सृष्टि प्रक्रिया(मैथुन) सम्भव होगा जिससे अपूर्व की उत्पत्ति होगी। अत: वचन प्राप्त होता है कि उत्पत्ति के क्रम में बाधा न बनें अर्थात् दोनों के मध्य से आवागमन न करें। इससे उत्पत्ति प्रक्रिया(मैथुन) प्रभावित होती है। यथा –ता नान्तरेण संचरेयु:।
इसी सन्दर्भ में शतपथ ब्राह्मण में वचन प्राप्त होता है कि वस्तुत: जल ले जाने का हेतु क्या है –अद्भिर्वाऽइदं सर्वमाप्तम् अर्थात् जल से ही यह समस्त सृष्टि व्याप्त है। इस प्रकार प्रथम कर्म द्वारा जगत् की प्राप्ति करता है। साथ ही यह भी वचन प्राप्त होता है कि –यद्वेवाप: प्रणयति। देवान् ह वै यज्ञेन यजमानांस्तानसुररक्षसानि ररक्षुर्न्न यक्ष्यध्वऽइति तद्यदरक्षँस्तस्माद्रक्षांसि। तात्पर्य यह है कि जब देव यज्ञ करने लगे तो असुरों ने उनको रोका – कहा यज्ञ मत करो। रोकने के कारण ही वह राक्षस कहलाये।
उपर्युक्त परिस्थिति में देवताओं ने जलरूपी वज्र का अन्वेषण किया। क्योंकि जल जहां से गति करता है गुजरता है वहां गर्त कर देता है, जिस पर आक्रमण कर देता है उसे नष्ट कर देता है। अत: यज्ञ को राक्षस मुक्त बनाने हेतु वज्र के रूप में जल को स्पर्श कर स्थापित करने से यज्ञ निर्विघ्नरूप से सिद्ध हो जाता है।
जल को माता के रूप में भी स्वीकार किया गया है – आपो अस्मान् मातर:। सनातन परम्परा में अचेतन में भी चेतनवत् कल्पना कर व्यवहार की परम्परा है। अत: जल में जल के अभिमानी देवता को माता के रूप में स्वीकार किया जाता है। लोक में जिस प्रकार माता बालक को दुग्धपान के द्वारा पोषण प्रदान करती है ठीक इसी प्रकार जल भी मातृवत् सामर्थ्य का जनक होता है। दैनिक जीवन में भी हम देखते है कि जब कभी कोई बेसुध हो जाता है तो उसे पानी के छीटें अथवा पानी पिलाकर चेतनायुक्त करने का प्रयास किया जाता है। जिस प्रकार माता के दूध में समस्त तत्त्व समाहित रहते है ठीक उसी प्रकार जल में समस्त ओषधियों का रस विद्यमान रहता है। इस प्रकार वैदिक देवताओं की यथार्थ परिकल्पना वस्तुत: शक्ति का एक विशिष्ट विभाग ही है। यजुर्वेद के अत्यन्त प्रसिद्ध मन्त्र द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति: इत्यादि के एक अंश आप: शान्ति: के द्वारा भी जल के कल्याणकारी रूप की ही प्रार्थना की गई है। यदि जल उग्र हुआ तो ऐसी परिस्थिति में जल सर्वथा नाशक हो जायेगा अत: जल का शान्त रहना परमावश्यक है।
यह जल न केवल साक्षात् रूप में अपि तु परोक्षरूप में भी मानवमात्र के लिये कल्याणकारी है यतो हि वृष्टि के माध्यम से खेत में विद्यमान फसलों को जलरूप रस प्राप्त होता है। जिससे ओषधियां प्राणवती होकर हमें प्राप्त होती है और उसी रसमय अन्न के भक्षण से मनुष्य शक्ति प्राप्त विविध कार्यों का सम्पादन में शक्य हो पाता है।
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