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Tuesday, September 24, 2024
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सांख्ययोग का संक्षिप्त सांख्य

ऋषिराज पाठक

(कलानिष्णात, विद्यावाचस्पति, शुक्लयजुर्वेदाचार्य, संगीतशिरोमणि)

सांख्य दर्शन भारत का प्राचीनतम दर्शन है।इसके रचयिता श्री कपिल मुनि हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में कपिल मुनि की प्रशंसा करते हुए कहा है कि ‘सिद्धानां कपिलो मुनिः’। अर्थात् मैं सिद्धों में कपिल मुनि हूँ।कपिल मुनि का वर्णन पौराणिक इतिहास में सुरक्षित है। भारतीय ऐतिहासिक दृष्टि इन्हें अत्यन्त प्राचीन काल (त्रेतायुग तथा उससे भी पहले कृतयुग) का व्यक्ति मानती है। वर्तमान में श्रीईश्वरकृष्ण (विक्रम संवत् की प्रथम शताब्दी के लगभग) ने सांख्यकारिका नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखकर सांख्य दर्शन का विषय व्यवस्थित किया है।

सांख्य शब्द का अर्थ ज्ञान है। यह शब्द संख्या को सूचित करता है। सांख्य दर्शन में पच्चीस तत्त्व माने गये हैं। पच्चीस तत्त्वों की गणना / संख्या के माध्यम से सम्पूर्ण जड-चेतन पदार्थों की अवधारणा, सत्ता और स्वरूप को स्पष्ट करने के कारण इसका नाम सांख्य पड़ा है।

सांख्य दर्शन की मान्यता है कि सम्पूर्ण प्राणी आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक; इन तीन दुःखों से निरन्तर पीड़ित होते रहते हैं। उन्हें इन दुःखों से बचाने का उपाय सांख्य का ज्ञान ही है, क्योंकि लौकिक (सांसारिक) उपाय और पारलौकिक (स्वर्ग-सुख) उपाय दुःखों से पूरी तरह से छुटकारा दिलाने में सक्षम नहीं हैं।लौकिक और पारलौकिक उपायों से दुःखों से छुटकारा तो मिल जाता है पर सम्पूर्ण रूप से नहीं मिलताकुछ ही समय के लिए मिलता है। सांख्य के उपाय से हमेशा के लिए दुःखों से मुक्ति हो जाती है।सांख्य के अनुसार दुःख-नाश का उपाय है – व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ का ज्ञान।

सांख्य के अनुसार संसार का जो रूप सहज रूप में दिखाई देता है वह व्यक्त है। जो दिखाई तो नहीं देता पर व्यक्त के कारण के रूप में अनुमान किया जाता है वह अव्यक्त है और जो जानने वाला है वह ज्ञ है। सांख्य में व्यक्त और अव्यक्त प्रकृति हैं और ज्ञ पुरुष है। इस प्रकार सांख्य प्रकृति और पुरुष; इन दोनों का वर्णन करता है और इन दो ही तत्त्वों को मानने के कारण सांख्य द्वैतवादी दर्शन कहलाता है।

सांख्य के अनुसार तीन ही प्रमाण हैं – दृष्ट, अनुमान और आप्तवचन। दृष्ट का अर्थ है प्रत्यक्ष। व्यक्त को दृष्ट से जाना जाता है। अव्यक्त और ज्ञ को अनुमान से जाना जाता है तथा इन पच्चीस तत्त्वों की गणना को आप्तवचन (शब्द) से जाना जाता है।

सांख्य के अनुसार पच्चीस तत्त्वों में से मूलप्रकृति (व्यक्त का कारण) अविकृति (जिसका कोई कारण नहीं होता, उसे अविकृति कहते हैं) है, महत्, अहंकार तथा पाँच तन्मात्राएँ प्रकृति और विकृति, दोनों हैं अर्थात् ये सात तत्त्व कारण भी हैं और कार्य भी हैं। इनके अतिरिक्त सोलह तत्त्व (मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच महाभूत) केवल (विकृति/ विकार) कार्य हैं कारण (प्रकृति) नहीं हैं और पुरुष (ज्ञ) न कारण है और न ही कार्य है।

सांख्य दर्शन सत्कार्यवाद को मानता है। सत्कार्यवाद का अर्थ है कार्य का अपने कारण में विद्यमान होना। सांख्य की मान्यता है कि कार्य कारण से उत्पन्न नहीं होता अपितु प्रकट होता है। कार्य अपनी उत्पत्ति से पहले ही अपने कारण में विद्यमान है।इस प्रकार व्यक्त भी अव्यक्त में पहले से ही विद्यमान है। जब सृष्टि होती है तब व्यक्त अव्यक्त से प्रकट हो जाता है और प्रलय काल में पुनः अव्यक्त में ही लीन हो जाता है।

सांख्य मानता है कि व्यक्त और अव्यक्त में कुछ समानताएं भी हैं और कुछ असमानताएँ भी हैं। व्यक्त और अव्यक्त; दोनों ही त्रिगुण हैं, अविवेकी हैं, विषय हैं, सामान्य है, अचेतन हैं और प्रसव (जन्म) धर्म से युक्त हैं, जबकि पुरुष इनसे विपरीत है।सांख्य के अनुसार व्यक्त और अव्यक्त प्रकृति तीन गुणों से युक्त है पर पुरुष इन गुणों से रहित है। प्रकृति में विवेक नहीं है पर पुरुष में विवेक है। प्रकृति विषय बनती है पर पुरुष विषय नहीं बनता। प्रकृति साधारण है पर पुरुष असाधारण है। प्रकृति जड़ है और पुरुष चेतन है। प्रकृति में जन्म देने का गुण है जबकि पुरुष में नहीं है।

व्यक्त और अव्यक्त की असमानताएँ हैं – व्यक्त का कारण होता है पर अव्यक्त का कोई कारण नहीं है, अव्यक्त स्वयं ही कारण है। व्यक्त अनित्य (सदा रहने वाला नहीं) है पर अव्यक्त नित्य (सदा रहने वाला) है। व्यक्त सब जगह व्याप्त नहीं है पर अव्यक्त सर्वत्र व्याप्त है। व्यक्त में क्रिया होती है, जबकि अव्यक्त में नहीं होती। व्यक्त अनेक हैं पर अव्यक्त एक है। व्यक्त किसी के (अव्यक्त के) आश्रित रहता है पर अव्यक्त किसी के भी आश्रित नहीं रहता। व्यक्त से किसी की (अव्यक्त की) पहचान होती है पर अव्यक्त स्वयं में ही दिखाई न देने के कारण पहचान नहीं है। व्यक्त के अवयव होते हैं जबकि अव्यक्त का कोई अवयव नहीं। व्यक्त परतन्त्र होता है जबकि अव्यक्त स्वतन्त्र।

सांख्य में तीन गुण बताए गये हैं सत्त्व, रजस् और तमस्। ये तीन गुण प्रकृति में रहते हैं।सत्त्व गुण ज्ञान से सम्बन्धित है, रजोगुण क्रिया से सम्बन्धित है और तमोगुण अवरोध से सम्बन्धित है। ये तीन गुण एक दूसरे को दबाते रहते हैं, एक दूसरे का आश्रय लेते हैंऔर विरोधी गुण वाले होकर भी साथ-साथ रहते हैं। जैसे रुई, तेल और अग्नि ये तीनों एक दूसरे के शत्रु हैं। अग्नि रुई को जला सकती है। तेल की धार अग्नि को बुझा सकती है। पर जब तीनों व्यवस्थित रूप में दीपक के रूप में आ जाते हैं तब परस्पर हानि पहुँचाए बिना प्रकाशित करते हैं। इसी प्रकार ये तीन गुण भी हैं। जब तीन गुण समान मात्रा में प्रकृति में रहते हैं तब प्रलयकाल होता है और जब इस गुणों में कोई अधिक या कम होता है तब सृष्टि हो जाती है।

सांख्य के अनुसार प्रकृति पुरुष को भोग देने के लिए है और पुरुष प्रकृति से भोग पाकर और तृप्त होकर मोक्ष पाने के लिए है। प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि होती है। जब प्रकृति और पुरुष का संयोग होता है तब दोनों एक दूसरे को अपनी विशेषताएँ दे देते हैं। प्रकृति पुरुष को कर्ता बना देती है और पुरुष प्रकृति को चेतन। वस्तुतः पुरुष कर्ता नहीं है पर प्रकृति के संयोग से कर्ता जैसा होता है।इसी प्रकार प्रकृति भी चेतन नहीं है पर पुरुष के संयोग से चेतन जैसी हो जाती है। अकेला पुरुष और अकेली प्रकृति कुछ नहीं कर सकते। जब दोनों में संयोग होता है तभी सृष्टि होती है।

पुरुष के संयोग से युक्त मूल प्रकृति से महत् उत्पन्न होता है, महत् से अहंकार उत्पन्न होता है, अहंकार से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन और पाँच तन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं और पाँच तन्मात्राओं से पाँच महाभूत उत्पन्न होते हैं। महत् का अर्थ है बुद्धि। बुद्धि के आठ रूप हैं। चार सात्विक रूप और चार तमस रूप। धर्म, ज्ञान, विराग और ऐश्वर्य, ये बुद्धि के सात्त्विक रूप हैं और अधर्म, अज्ञान, राग और अनैश्वर्य, ये बुद्धि के तमस रूप हैं।

अहंकार भी तीन प्रकार का है – सात्विक (वैकृत) अहंकार, राजस (तैजस) अहंकार और तामस (भूतादि) अहंकार। सात्विक और राजस अहंकार से ग्यारह इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं और तामस और राजस अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं।

चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, रसना और त्वक् ये ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। वाक्, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ ये कर्मेन्द्रियाँ हैं। मन ज्ञानेन्द्रिय भी है और कर्मेन्द्रिय भी। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध; ये पाँच तन्मात्राएँ हैं। आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी ; ये पाँच महाभूत हैं।

सांख्य की मान्यता है कि पुरुष बहुत हैं। पुरुष को अनेक मानने के पक्ष में सांख्य का तर्क है – सबके जन्म, मरण और इन्द्रियाँ अलग-अलग नियम से जुड़े हैं। अर्थात् सबका जन्म और मृत्यु एक साथ नहीं होते। सबकी इन्द्रियाँ अलग अलग हैं। सभी एक साथ एक कार्य नहीं करते और सभी में तीन गुणों का प्रभाव अलग-अलग देखने को मिलता है।

सांख्य के अनुसार बुद्धि के सात रूप (ज्ञान को छोड़कर) पुरुष को बन्धन में डालते हैं और ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है। जब पुरुष प्रकृति का भोग कर लेता है तब उसका प्रकृति से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता और प्रकृति भी स्वयं का प्रदर्शन करने के बाद पुरुष के सामने से स्वयं को हटा लेती है।इस प्रकार प्रकृति और पुरुष दोनों अपनी- अपनी भूमिका में रहते हैं।

सांख्य के इन्हीं पच्चीस तत्वों को जानने से मोक्ष हो जाता है। मोक्ष का अर्थ है त्रिविध दुःखों से हमेशा के लिए छुटकारा।इस प्रकार सांख्य दर्शन अत्यंत व्यावहारिक दर्शन है। योग दर्शन से इसका विशेष सम्बन्ध है। इन दोनों के ज्ञान और प्रयोग से मनुष्य अपने चरम परम लक्ष्य मोक्ष को पाने में समर्थ हो सकता है।

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