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Tuesday, September 24, 2024
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महाकवि कालिदास और प्रकृति की प्रकृति

ऋषिराज पाठक
(कलानिष्णात, विद्यावाचस्पति, संगीतशिरोमणि, शुक्लयजुर्वेदाचार्य)

इस प्रकृति में सर्वाधिक सुन्दरतम वस्तु प्रकृति ही है।‘प्रकृति’ शब्द का अर्थ ही है प्रकृष्ट कृति। प्रकृष्ट कृति अर्थात् श्रेष्ठ कृति। श्रेष्ठ कृति सुन्दरतम ही होती है।सुन्दरतम होना ही श्रेष्ठ होना है।      वस्तुतः दो ही तत्त्व अनादि हैं पुरुष और प्रकृति (प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि। गीता)। इन दोनों में प्रकृति सुन्दर है और पुरुष उसका आस्वादक अथवा परीक्षक है (प्रकृतेः सुकुमारतरं न किञ्चिद् …। पुरुषस्य भोक्तृभावात् ….। साङ्ख्यकारिका)इस प्रकार कहा जा सकता है कि पुरुष और प्रकृति का पारस्परिक सम्बन्ध ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ के सनातन लक्ष्य पर आधारित है।

यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना परम आवश्यक है कि भारतीय साहित्य में प्रकृति के सुकुमार रूप के साथ-साथ उसका उग्र अथवा घोर रूप भी चित्रित हुआ है। क्योंकि प्रकृति की प्रकृति त्रिगुणात्मिका है।इस कारण उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। उसके सुकुमार रूप ने पुरुष को प्रेम करना सिखाया है और भयंकर रूप ने भयभीत होना सिखाया है। भारतीय संस्कृति में ‘ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः’ इस वचन के अन्तर्गत निहित आधिदैविक शान्ति प्रकृति के घोर रूप के शान्त रहने की प्रार्थना के रूप में ही कल्पित हुई है।

प्राणिमात्र सौन्दर्यप्रिय है। इस दृष्टि से यहाँ प्रकृति के सुन्दरतम रूप पर कुछ कहना अभीष्ट है। वस्तुतः प्रकृति का उग्र रूप भी सुन्दरतम है क्योंकि भय भी चित्त का एक भाव है और भाव असुन्दर नहीं हो सकता है। सौन्दर्य के क्षीण हो जाने का भय भी सदा बना रहता है और सौन्दर्य के छिन जाने का भय भी मनुष्य को पीड़ित किये रहता है। अतः भय भी सौन्दर्य की ही परिधि में अपना स्थान बनाये हुए है। इसीलिये प्राणिमात्र को भय से युक्त माना गया है (आहारनिद्राभयमैथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।)

प्रकृति का सुन्दरतम रूप ऋग्वेद से ही चित्रित हुआ है। वहाँ उषा देवी का सौन्दर्य अत्यन्त ही हृदयावर्जक है। प्रातःकाल की आकाशीय अरुणिमा मानो उषा नर्तकी के नृत्य के समय किया गया रक्त वस्त्र का प्रसन्न विस्तार हो।

सुन्दरी प्रकृति ही कविता-वनिता के सौन्दर्य का आधार रही है। महाकवि कालिदास ने प्रकृति चित्रण में सौन्दर्य की पराकाष्ठा का स्पर्श किया है।उन्होंने पृथ्वी, समुद्र, नदी, पर्वत, मेघ, सूर्य, पुष्प, लता आदि का जो वर्णन किया है वह सम्पूर्ण साहित्य में अनूठा है। उन्होंने प्राणिमात्र की अन्तः प्रकृति का भी चित्रण किया है।उनके प्रकृतिचित्रण में दार्शनिक भाव बोध के साथ-साथ सौन्दर्यमीमांसा की भी सृष्टि हुई है।महाकवि कालिदास के कुछ वर्णन यहाँ द्रष्टव्य हैं ;

रघुवंश महाकाव्य के तेरहवें सर्ग में जब भगवान् श्रीरामचन्द्र जी रावण का वध करने के अनन्तर माता सीता जी के साथ पुष्पक विमान पर आरूढ़ हुए लंका से अयोध्या की ओर विमानयात्रा कर रहे हैं तब समुद्र को पार करने के बाद पृथ्वी के ऊपर विमान से जाते हुए उन्हें ऐसा लगता है कि ‘मानो दूर होते हुए समुद्र से यह पृथ्वी निकल रही है’ (कुरुष्व तावत्… रघुवंश १३.१९)।सीताजी को ढूँढते हुए श्रीरामजी को जब मार्ग में सीताजी का नूपुर गिरा हुआ मिलता है तो वे उस घटना का स्मरण करते हुए कहते हैं कि ‘सीता, यह वही स्थान है जहाँ मैंने तुम्हें ढूँढते हुए तुम्हारा नूपुर देखा था। यह नूपुर मानो तुम्हारे चरणकमल के वियोग के दुःख के कारण मौन पड़ा हुआ था’। (सैषा स्थली….रघुवंश १३.२३)। यहाँ महाकवि कालिदास ने अचेतन नूपुर में भी वियोग भाव की सृष्टि कर दी है।श्रीरामजी को आकाश मार्ग से पर्वत के किनारे बहती हुई मन्दाकिनी नदी ऐसी दिखती है ‘मानो पृथ्वी के कण्ठ में पड़ी हुई मोतियों की माला हो’। (एषा प्रसन्नस्तिमितप्रवाहा… रघुवंश १३.४८)।महाकवि कालिदास के इन वर्णनों में प्रकृति का भौतिक एवं बाह्य रूप चित्रित हुआ है।

मेघदूत में भी महाकवि कालिदास ने मेघ को दूत बनाकर प्रकृति का सर्वोत्तम रूप प्रस्तुत किया है। मेघ अचेतन है। वह धूम, ज्योति, सलिल और मरुत् से बना है। वह यद्यपि यक्षिणी के प्रति विरही यक्ष का सन्देश ले जाने में सशक्त नहीं है तथापि कामार्त जन प्रकृतिकृपण होने के कारण चेतन और अचेतन में भेद नहीं कर पाते, इसलिए मेघ को दूत बनाया जाना अनुचित नहीं है। यहाँ ‘प्रकृतिकृपण’ शब्द में चमत्कार है।‘प्रकृति’ शब्द यहाँ स्वभाव को सूचित करता है। काम के कारण प्रकृति ने ही जिन्हें कृपण बना दिया है, ऐसे कामार्त जन यहाँ प्रकृति के भावुक सौन्दर्य के परिचायक हैं (धूमज्योतिः…. मेघदूत, पूर्वमेघ ५)।

मेघदूत में प्रकृति और पुरुष के मध्य एक विशेष सम्बन्ध प्रदर्शित हुआ है। वहाँ मेघ को कामरूप और इन्द्र का प्रकृतिपुरुष कहा गया है (प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः… मेघदूत, पूर्वमेघ ६)।यहाँ मेघ को कामरूप कहने का अर्थ है मेघ का कामवर्धक होना। मेघ कामनाओं का वर्धक है। कामनाएँ जल की तरह कोमल और प्रवाहरूप होती हैं। मेघ जलधर है। जल को धारण करने वाला होने के कारण मेघ कामरूप है। वस्तुतः यहाँ ‘काम’ शब्द कामभाव का सूचक है। मेघ के जलीय होने के कारण और काम से सृष्टि होने के कारण ही जल को विधाता की आदि सृष्टि कहा गया है (या सृष्टिः स्रष्टुराद्या…. (शाकुन्तल १.१)। महाकवि कालिदास ने विधाता की आद्य (प्रथम) सृष्टि के रूप में जल के माध्यम से शकुन्तला के दिव्य सौन्दर्य कीव्यंजना की है। क्योंकि काम रति के बिना सम्भव नहीं है।रति नारीरूप है। अतः प्रकृति की आदि सृष्टि नारीरूप ही हो सकती है।इस प्रकार शकुन्तला आदि सृष्टि की प्रतीक है।

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