35.1 C
Delhi
Tuesday, September 24, 2024
spot_img

पुराणों में सरस्वती नदी का वर्णन

डॉ० ठाकुर शिवलोचन शाण्डिल्य[1]

पुराण भारतीय वाङ्मय के चतुर्दश विद्यास्थानों में से अग्रगण्य है । नारदीयपुराण में पुराणों की सर्वजनवेद्यता का उल्लेख इस प्रकार से किया गया है :-

“वेदार्थादधिकं मन्ये पुराणार्थं वरानने ।

वैदाः प्रतिष्ठिताः सर्वे पुराणे जातसंशयः ॥”[i]

पुराणों को भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख अभिलक्षण माना गया है । आचार्य बलदेव उपाध्याय ने पुराण को ‘भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड’ कहा है ।[ii] ‘पुराण’ शब्द का निर्वचन करते हुए निरुक्तकार यास्क ने कहा है कि जो प्राचीन होकर भी नया होता है (पुरा नवं भवति[iii]) उसकी पुराण संज्ञा है । पाणिनीय अष्टाध्यायी की प्रक्रिया के अनुसार ‘पुरा’ शब्द से ‘सायंचिरंप्राह्वेप्रगेऽव्ययेभ्यष्ट्युट्युलौ तुट् च’ [iv] सूत्र द्वारा ‘ट्यु’ प्रत्यय करने पर नियमतः तुडागम होकर ‘पुरातन’ शब्द निष्पन्न होता है, परन्तु निपातनात् तुडागम का अभाव प्राप्त होकर यहाँ ‘पुराण’ शब्द सिद्ध होता है । स्वयं पाणिनि ने भी ‘पुराणप्रोक्तेषु ब्राह्मणकल्पेषु’ [v] आदि सूत्रों में ‘पुराण’ शब्द का प्रयोग किया है । ‘पुराण’ शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए ब्रह्माण्डपुराण में कहा गया है कि जो ऐसी जानकारी दे कि ‘प्राचीन काल में ऐसा हुआ’ (पुरा ह्यभूच्चैतत्)[vi] उसे पुराण कहा गया है।[vii]

     विभिन्न काव्यों व शास्त्रों में पुराणों की महत्ता का उल्लेख किया गया है । महाभारत के आदिपर्व में कहा गया है कि श्रेष्ठ कवियों द्वारा पुराणों में आस्तिक्य, सत्य, शौच, दया व सरलता जैसे गुणों का वर्णन किया गया है तथा उसका आश्रय लेकर ही विद्वज्जन लोक में इन गुणों का उपदेश करते हैं :-

                             महात्म्यमपि चास्तिक्यं सत्यं शौचं दयार्जवम् ।

                             विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः ॥[viii]

        भारतीय वाङ्मय-परम्परा में पुराणों का महत्व इस तथ्य से भी स्पष्ट होता है कि इस विद्या की परिगणना चतुर्दश विद्यास्थानों में सबसे पहले की गयी है :-

पुराणन्यायमीमांसाधर्मशास्त्राङ्गमिश्रिताः ।

वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मस्य च चतुर्दश ॥” [ix]

          महाभारत में कहा गया है कि पुराण रूपी पूर्णचन्द्र श्रुतिरूपा ज्योत्स्ना का प्रसार करता है, इससे सङ्केत किया गया है  कि पुराण वेदविहित श्रुति के अर्थ का लोक में प्रसार करते हैं :-

                             पुराणपूर्णचन्द्रेण श्रुतिज्योत्स्ना प्रकाशिता ।[x]

        पुराणेतिहास के महात्म्य के रूप में महाभारत की यह उक्ति भी प्रसिद्ध है कि इतिहास और पुराण के माध्यम से वेद का सम्यक् उपबृंहण करना चाहिये, अल्पश्रुत व्यक्ति से वेद भी डरता है कि यह मेरे स्वरूप व तात्पर्य की हानि कर देगा :-

इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् ।

बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रहरिष्यति ॥[xi]

        ‘पुरणात् पुराणम्’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार वेदार्थों की पूर्ति करने के कारण इन ग्रन्थों की पुराण संज्ञा हुई है । मार्कण्डेयपुराण में वर्णित है कि वेद के समान ही पुराण भी सृष्टि के प्रारम्भ से ही विद्यमान थे, जिस प्रकार ऋषियों ने वेद का ग्रहण किया उसी प्रकार मुनियों ने पुराण का :-

उत्पन्नमात्रस्य पुरा ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ।

पुराणमेतद्वेदाश्च मुखेभ्योऽनुविनिःसृता ॥

वेदान् सप्तर्षयस्तस्माज्जगृहुस्तस्य मानसाः ।

पुराणं जगृहुश्चाद्या मुनयस्तस्य मानसाः ॥[xii]

          पुराणों को यद्यपि ब्रह्मा के मुख से निःसृत माना गया है तथापि पुराण रूपी इस विद्या को सुव्यवस्थितरूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय कृष्णद्वैपायन व्यास जी को प्राप्त है । इसी सन्दर्भ में उन्हें अष्टादश पुराणों का रचयिता कहा जाता है । ध्यातव्य है कि महापुराणों की संख्या १८ मानी गयी है, इसका सङ्केत निम्नलिखित श्लोक में किया गया है :-

मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम् ।

अनापल्लिङ्कूस्कानि पुराणानि पृथक्-पृथक् ॥[xiii]

        उपर्युक्त श्लोक के आद्यक्षरों से निर्दिष्ट ये अष्टादश पुराण हैं – १. मत्स्यपुराण, २. मार्कण्डेयपुराण, ३. भागवतपुराण, ४. भविष्य, ५. ब्रह्मपुराण, ६. ब्रह्मवैवर्तपुराण,          ७. ब्रह्माण्डपुराण, ८. वामनपुराण, ९. विष्णुपुराण, १०. वायुपुराण, ११. वाराहपुराण, १२. अग्निपुराण, १३.  नारदपुराण, १५. पद्मपुराण, १५. लिङ्गपुराण, १६. गरुडपुराण, १७. कूर्मपुराण एवं १८. स्कन्दपुराण ।

पुराणों के प्रतिपाद्यों की पञ्चलक्षणों के अन्तर्गत परिगणना की गयी है – सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर तथा वंशानुचरित  :-

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च ।

वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चलक्षणम् ॥ [xiv]

पुराण भारतवर्ष के सनातन इतिहास के संग्राहक ग्रन्थ हैं । भारतीय वाङ्मय परम्परा अथवा भारतीय बौद्धिक परम्परा पर विभिन्न पाश्चात्य विद्वानों द्वारा तथा कतिपय पाश्चात्यमना भारतीय विचारकों द्वारा भी यह आक्षेप किया जाता है कि यहाँ इतिहास लेखन की व्यवस्थित एवं औपचारिक विधा प्रतिष्ठित नहीं रही और भारत का इतिहास-लेखन वैदेशिक-आगन्तुकों द्वारा ही प्रारम्भ किया गया । वस्तुतः इन अयुक्त आक्षेपों के खण्डन हेतु पुराणों का अस्तित्वमात्र ही पर्याप्त है । पुराणों में बृहत्तर भारत का समृद्ध इतिहास सुव्यवस्थित रूप में संकलित किया गया है । सृष्टि से लेकर प्रलय तक का इतिहास पौराणिक कथानकों में प्राप्त होता है । पुराण हमारे इतिहास के सामाजिक, सांस्कृतिक, सामरिक, आर्थिक, भौगोलिक आदि सभी पक्षों का सम्यक् उपस्थापन करते हैं ।

पुराणों में हमारा प्राचीन इतिवृत्त अर्थात् इतिहास तो निबद्ध है ही, साथ ही हमारी भौगोलिक परिस्थितियाँ भी वर्णित हैं । पुराणों में महाद्वीपों, महासागरों, पर्वतों, नदियों तथा देशादिकों का सटीक निबन्धन प्राप्त होता है जो तत्कालीन भौगोलिक पृष्ठभूमियों का परिचय प्रदान करता है । प्रस्तुत शोध-पत्र में पौराणिक साक्ष्यों के आधार पर सरस्वती नदी के स्वरूप, उद्गम व मार्गादि की विवेचना का प्रयास किया जायेगा ।

[1] सहायक आचार्य, संस्कृत विभाग, कला संकाय, का०हि०वि०वि०, वाराणसी ।

[i] नारदीयपुराण – १/१५/१७

[ii] “भारतीय संस्कृति के स्वरूप की जानकारी के लिये पुराण के अध्ययन की महती आवश्यकता है । पुराण भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड है – वह आधारपीठ है जिस पर आधुनिक भारतीय समाज अपने नियमन को प्रतिष्ठित करता है ”                                                                                                           -उपाध्याय, बलदेव:पुराण-विमर्श, पृ० ३.

[iii] निरुक्त, ३/१९

[iv] पाणिनीय अष्टाध्यायी, ४/३/२३

[v] वही, ४/३/१०५

[vi] “यस्मात् पुरा ह्यभूच्चैतत् पुराणं तेन तत् स्मृतम्” ।

-ब्रह्माण्डपुराण, १/१/१७३

[vii] देखें- उपाध्याय, बलदेव:पुराण-विमर्श, पृ० ३ – ५.

[viii] महाभारत, १/१/२४०

[ix] या० स्मृ०, आचाराध्याय/३.

[x] महाभारत, १/१/८६

[xi] वही, १/१/२६७

[xii] मार्कण्डेयपुराण, ४५/ २०, २३.

[xiii] श्रीमद्देवीभागवत, १/३/२१

[xiv] विष्णुपुराण, ३/६/२४

पूरा लेख पढ़ने के लिए कृपया पत्रिका की सदस्यता लें…

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisement -spot_img

Latest Articles