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Tuesday, September 24, 2024
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भारतीय गुरुकुल शिक्षा प्रणाली और नारी

(यह लेख संवाद विद ऋषिराज’ एपिसोड – ४ के सारांश के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। संस्कृत के युवा कवि और विद्वान् आचार्य ऋषिराज पाठक और पाणिनि कन्या महाविद्यालयवाराणसी की आचार्या प्रीति विमर्शिनीके मध्य हुए इस संवाद में भारतीय परम्परा में नारी का सर्वोत्कृष्ट रूप और संघर्षदोनों ही द्रष्टव्य हैं।

सारलेखन और प्रस्तुति – कामिनी  मिश्रा

आचार्य ऋषिराज पाठक – नमस्कार, ऋषिराज पाठक का प्रणाम स्वीकार करें। आचार्या जी, आप वैदिक अवधारणा की दृष्टि से ब्रह्मवादिनी हैं। तो आज हम आपके साथ नारी शिक्षा के विशेष संदर्भ में गुरुकुल परम्परा पर चर्चा करने के लिए उपस्थित हैं।

आचार्या प्रीति विमर्शिनी – ऋषिराज जी का हमारे इस पाणिनि कन्या महाविद्यालय में हार्दिक स्वागत एवं अभिनंदन है।

आचार्य ऋषिराज पाठक – जी धन्यवाद। आचार्या जी, स्वामी दयानन्द सरस्वती जी की जो मान्यता है या उन्होंने जो उपदेश किया है कन्या गुरुकुलों संदर्भ में, उसकी क्या भूमिका है? आप पाणिनि कन्या महाविद्यालय की जो पूर्वरेखा है उसके संदर्भ में कुछ बताएं।

आचार्या प्रीति विमर्शिनी – जी।महर्षिदयानंदसरस्वतीजीनेशतपथब्राह्मणकेकुछउद्धरण देते हुए द्वितीय समुल्लास में एक पंक्ति कही है – ‘मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद’ कि वह मनुष्य अति भाग्यवान् है जिसके श्रेष्ठ माता-पिता और आचार्य होते हैं। और नारी तब तक श्रेष्ठ नहीं हो सकती जब तक वो वेदाध्ययन न करे। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने इसकी उपयोगिता को समझा और पदे-पदे अपने प्रवचनों में, अपने ग्रंथों में, वेदभाष्यों में, पदे-पदे उन्होंने इसे उपस्थापित किया और उसके ही परिणाम-स्वरूप कन्या गुरुकुलों की स्थापना की गयी।

आचार्य ऋषिराज पाठक – जी जी जी। बहुत बढ़िया। आचार्या जी, आपके  इस गुरुकुल में कौन-कौन सी विद्याएँ   छात्राओं को पढ़ाई जाती हैं ?

आचार्या प्रीति विमर्शिनी – देखिए, कन्याओं के सर्वांगीण विकास को दृष्टिगत रखते हुए हम कन्याओं को सभी प्रकार की शिक्षाएँ यहाँ पर प्रदान करते हैं। वो चारों वेदों का अध्ययन करती हैं। छः दर्शन जिन्हें कि उपांग कहा जाता है, उनका भी अध्ययन करतीं हैं। उसके अतिरिक्त गानविद्या है, तो गानविद्या में भी शास्त्रीय संगीत भी बच्चियां सीखतीं हैं। उसके अतिरिक्त सितार, गिटार, वायलिन, तबला, हारमोनियम इत्यादि। उसके अतिरिक्त शस्त्रास्त्र विद्या है, पाक कला है और सिलाई इत्यादि हैं, उसके साथ जो गृहस्थ की शिक्षाएँ हैं, अचार, बड़ी वगैरह डालना है, पापड़ इत्यादि बनाना है, उसके साथ आयुर्वेदिक औषधियाँ है, च्यवनप्राश बनाना है, तेल बनाना है, काजल बनाना है, मंजन है, कुछ हिंग्वष्टक इत्यादि जो चूर्ण इत्यादि हैं, उन सबका भी प्रशिक्षण हम यहाँ पर कन्याओं को देते हैं।

आचार्य ऋषिराज पाठक – जी, बहुत सुंदर। ये जो वेदपाठ की परम्परा है, हमारी जो सनातन परम्परा है, उसमें एक रूढ़ि रही है कि कन्याओं को वेदपाठ नहीं सिखाया जाना चाहिए जबकि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के बाद आर्य समाज के कुछ गुरुकुलों में कन्याओं को भी वेदपाठ सिखाए जाने लगे हैं, तो इसमें प्रारंभ में क्या मुश्किलें आने लगीं आपको ?

आचार्या प्रीति विमर्शिनी – देखिए, सर्वप्रथम तो यह है कि जब इस पाणिनि कन्या महाविद्यालय की स्थापना हुई, उस समय ही अनेकों संघर्षों का सामना करना पड़ा। उस समय बहुत संघर्ष हुए और आज ये स्थिति है कि जिन सनातनी पंडितों ने उस समय इसका घोर विरोध किया था, आज उनके गढ़ में, उन विश्वविद्यालयों में, उनके कार्यक्रमों में यहाँ की कन्याएँ ही वैदिक मंगलाचरण के लिए बुलाई जाती हैं। एक मैं अपने साथ घटित आपको एक घटना बताना चाहूंगी कि मैं, एक स्वामीजी थे, तो वो यहाँ पर हमसे व्याकरण पढ़ने के लिए आया करते थे। और मैंने उनसे प्रसंग में ही ऐसे ही कह दिया कि “संभवतः अब तो यह परम्परा शायद लुप्त हो चुकी है कि मुख से उदात्त-अनुदात्त-स्वरित का जो उच्चारण होता है!” तो उन्होंने कहा कि “नहीं अभी भी वो परम्परा है”। तो मैंने कहा “अच्छा, तो आपको याद है? आपको मालूम है ?” तो उन्होंने मुझे कुछ मंत्र सुनाए। ऋग्वेद के मंत्र थे। जिसमें  मुख से ही उदात्त-अनुदात्त-स्वरित की प्रक्रिया चल रही थी। मैंने उनसे कहा कि “क्या आप ये हमें सिखा सकते हैं ?” तो वो असमंजस में पड़ गए। और उन्होंने कहा कि “नहीं।”  तो मैंने कहा “क्यों ?” तो फिर उन्होंने कहा कि “हमारे गुरु जी ने मना किया है, कि कन्याओं को वेद नहीं सिखाना।” फिर थोड़ी सी इस विषय पर चर्चा हुई और बाद में उन्होंने कहा कि “अच्छा मैं सिखाने के लिए तैयार हूँ, किंतु आपको कहीं ये चर्चा नहीं करनी है कि मैंने ये सिखाया है।” तो इस प्रकार से मेरे काफी निवेदन करने पर उसके बाद फिर उन्होंने यहाँ पर कन्याओं को दाक्षिणात्य शैली से मुख से ही उदात्त-अनुदात्त-स्वरित का उच्चारण करते हुए, उन्होंने कई ऋग्वेद के सूक्त सिखाए। एक बार हम इलाहाबाद के माघ मेले में गए हुए थे। तो वहाँ पर एक शंकराचार्यजी थे और अपने विद्यालय की पूरी टीम गई हुई थी। तो उसमें हम लोग उनके सामने उनसे मिलने के लिए गए। तो उनसे बात चल रही थी तो उन्होंने कहा कि  “आप कन्याओं को वेद क्यों पढ़ातीं हैं ?” तो हमने कहा “क्यों नहीं पढ़ा सकते हैं ?” तो उन्होंने कहा कि “इसीलिए नहीं पढ़ा सकते, क्योंकि कन्याएँ सही स्वर नहीं लगा सकती हैं क्योंकि भगवान् ने उनके शरीर की संरचना ही ऐसी की है कि वो स्वर नहीं लगा सकतीं हैं।” मैंने कहा, “ये कन्याएँ तो स्वर आराम से लगाती हैं और इन्होंने परम्परा से गुरुओं से सीखा है। उन्होंने कुछ कन्याओं को स्वर लगाने के लिए बोला। हमारी कन्याओं ने स्वर लगा दिए। तो उन्होंने कहा कि “नहीं, स्वर तो आपने सही लगाया है।” तो फिर मैंने कहा, “अब कोई परेशानी ?” तो कहते हैं, “हाँ, यदि कन्याएँ मंत्र पढ़ेंगी, वेदपाठ करेंगी तो वो पुत्रवती नहीं होंगी।” तो मैंने कहा, “ये भी आपका बिलकुल गलत है, क्योंकि हमारे विद्यालय में जो कन्याएँ हैं, वो परम्परागत रूप से भी सस्वर वेद मंत्रों का उच्चारण भी करती हैं, और आज जब वो गृहस्थाश्रम में हैं तो यह प्रसन्नता की बात है कि एक भी कन्या ऐसी नहीं है जिन्होंने वेद-पाठ किया हो और वो संतानवती ना हों। उनके एक पुत्र और एक पुत्री हैं। इस प्रकार से हैं।” तो वो सुनकर के बड़े आश्चर्यचकित हुए। अन्य सम्प्रदाय में भी यदि कन्याओं को, महिलाओं को वो अधिकार प्राप्त हो रहे हैं कि आज महिलाएं नमाज पढ़ सकतीं हैं – मस्ज़िदों में जाकर के, तो कहीं ना कहीं से ये आर्य समाज की महिलाओं के कर्मकांड के अधिकार को देखते हुए ही, उनके अंदर ये परिवर्तन आया है। यदि आज सनातन परम्पराओं में महिलाएं व्यासपीठ को संभाल रहीं हैं और भागवत कथाएँ कर रहीं हैं तो वो भी आर्यसमाज की विदुषियों से प्रेरित हो करके ही कर रहीं

आचार्य ऋषिराज पाठक जी जी जी। आचार्या जी, कुछ ऐसे संदर्भ आप उपस्थित कीजिए जिनसे पता लगता हो कि प्राचीन समय में महिलाओं ने वेदाध्ययन किया था। जैसे कुछ प्रसंग महाभारत या रामायण या कुछ अन्य..

आचार्या प्रीति विमर्शिनी – हाँ, बहुत सारे हैं। प्रसंग तो आप उनको देखिये, पहले तो आप यही देखिये कि अनेक ब्रह्मवादिनी ऋषिकाएं हुईं। गार्गी और याज्ञवल्क्य का संवाद रामायण में देखिये कि जिस समय मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र अपनी माता कौशल्या देवी से वनगमन की आज्ञा लेने के लिए जाते हैं, तो उस समय भी उसमें कहा गया कि ‘सा क्षौमवसना’ कि वो जो महारानी माता कौशल्या देवी थीं, वो उस समय रेशमी वस्त्र धारण किए हुए और ‘शुद्धा व्रतपरायणा’ उन्होंने नित्य अपने व्रत का पारायण लिए हुए, वो उस समय ‘अग्निम् जुहोति स्म तदा’, कि वो उस समय अग्निहोत्र कर रही थीं।  हमारा प्राचीन इतिहास इससे भरा हुआ है कि नारियाँ भी वेदाध्ययन करती थीं इतना ही नहीं वो यज्ञोपवीत भी धारण करती थी। बाद में अज्ञानतावश इस प्रकार की स्थितियां उत्पन्न हो गईं। किन्तु शनैः शनैः आर्य समाज में गुरुकुलों की ये देन हैं। अब तो ये जो गायत्री परिवार वाले हैं, वो भी कन्याओं को उपनयन देते ही हैं। उसके अतिरिक्त रविशंकर जी का जो है, वो भी अपने परम्परा में उन्होंने भी कन्याओं को उपनयन  देना, महिलाओं को उपनयन देना, उन्होंने भी प्रारंभ किया है। अभी दो वर्ष पहले उन्होंने भी लगभग १०१ महिलाओं का उपनयन संस्कार करवाया। तो इस प्रकार से जागृति आ रही है और शनैः शनैः और जागृति आएगी।

आचार्य ऋषिराज पाठक –  जी। आचार्या जी, जैसे कि आप स्वयं भी ब्रह्मवादिनी हैं, आपके गुरुकुल के लिए ब्रह्मवादिनी होना क्यों अनिवार्य है?

आचार्या प्रीति विमर्शिनी – देखिए, जो मानव जीवन का उद्देश्य है – ‘शिक्षा’ तो फिर उसके लिए यदि हम गृहस्थ के झंझटों में फँस जाएंगे तो हम उसको नहीं कर पाएंगे। दूसरी बात ये है कि जो हमारा समय, जो समर्पण, हमारी कन्याओं के निर्माण में हमें देना है, संस्था के निर्माण के लिए हमें लगाना है, यदि हम गृहस्थ में चले जाते हैं तो हम पूरा समय संस्था के लिए नहीं दे सकते हैं। क्योंकि वो भी हमारा धर्म है। यदि उसमें गए हैं तो उस धर्म का पालन करना भी उस कर्तव्य का पालन करना भी हमारा धर्म बन जायेगा। तो इसीलिए हमने उस रास्ते को नहीं चुना। और ये यहाँ के लिए आवश्यक है कि जो भी इस कन्या गुरुकुल की आचार्या या उपाचार्याएँ होंगी, जो भी इस की संरक्षिकाएँ होंगी वो ब्रह्मवादिनी ऋषिकाओं की तरह ही आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके ही रहेंगी।

आचार्य ऋषिराज पाठक – जी, जी। आचार्या जी, मैं अंतिम प्रश्न पूछूँगा इस कार्यक्रम के लिए, कि आपके यहाँ शस्त्रास्त्र विद्या भी सिखाई जाती है। तो क्या क्या सिखाया जाता है और किस प्रकार सिखाया जाता है और इसके सिखाने का क्या उद्देश्य है?

आचार्या प्रीति विमर्शिनी – हाँ जी, हम कन्याओं को धनुर्वेद की वैसे शिक्षा नहीं देते। हम लोग स्वयं करते हैं, कर लेते हैं, किंतु बच्चियों को हम केवल उसका प्रायोगिक प्रशिक्षण ही प्रदान करते हैं क्योंकि वो विद्या सुरक्षित रहनी चाहिए और आधुनिक दृष्टि से जिन चीजों का प्रयोग होता है जैसे जूडो, कराटे तो पहले वो नियुद्ध के रूप में था तो बच्चियां वो भी सीखती हैं, परेड भी सीखती हैं, और राइफल या शूटिंग, वो भी सीखती हैं। कन्याएँ एक दूसरे को सिखाती चली जातीं हैं। और किसी चीज के लिए यदि आवश्यकता पड़ती है तो हम बाहर से उसके प्रशिक्षकों को विशेष रूप से बुला भी लेते हैं और सिखाने के पीछे एक उद्देश्य तो मैंने बताया कि प्राचीन विद्याओं को संरक्षित रखना। दूसरा, इसके माध्यम से कन्याओं के अंदर आत्मविश्वास, आत्मरक्षा की भावना आती है। ये उसका ही परिणाम है कि 50 वर्ष के इतिहास में इस विद्यालय में कभी भी किसी गार्ड को नहीं रखना पड़ा। रात्रि में फाटक अंदर से बंद, कन्याएँ स्वयं लाठी-भाला-तलवार लेकर के तैयार रहती हैं हमेशा। तो ये भाव हम उसके माध्यम से इन कन्याओं में, नन्हीं-नन्हीं कन्या यहाँ की तलवार चलातीं हैं। आठ-आठ साल की बच्चियाँ दोनों हाथ से तलवार चलाती हैं, जैसे रानी लक्ष्मीबाई चलाती थीं। आँख में पट्टी बांध करके धनुष चलाती हैं। शब्दवेधी बाण चलाती हैं और धनुष से मालाएँ पहनातीं हैं। धागा कट करके माला गले में आ जाती है। तो ये सारी चीजें भी हम उन्हें प्रशिक्षित करते हैं तो उससे आत्मविश्वास और अपने संरक्षण के भाव.. इतनी यात्राएं करते हैं, आज तक कोई घटना नहीं हुई। किसी की हिम्मत नहीं हुई कि गलत निगाहों से कोई अपने विद्यालय की कन्याओं को देख सके। आज तक कोई ऐसा पैदा नहीं हुआ। वो तेज उनके चेहरे पर झलकता है।

आचार्य ऋषिराज पाठक – जी, आपके इस उत्कृष्ट व्याख्यान के लिए और उत्कृष्ट साक्षात्कार के लिए आपको बहुत बहुत धन्यवाद।

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