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Tuesday, September 24, 2024
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भगवान् श्रीकृष्ण और उनका योगैश्वर्य

अखिलविश्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण केविमल-वचनामृत के अनुसार साधुपुरुषों को परित्राण देने हेतु, दुष्कृत पुरुषों को विनष्ट करपृथ्वी का भार उतारने हेतु तथा योगरूपी धर्म की पुनः स्थापना हेतु ही आदि नारायण भूमा परमेष्ठी इस धराधाम पर लीलारूप से अवतरित होते हैं। यहाँ साधुपुरुषों को परित्राण देने के अन्तर्गत उन पर श्रीभगवान् द्वारा अनुग्रह होने का भाव भी सन्निहित है। इस प्रसंग में ‘अनुग्रह’ शब्द का अर्थ है‘भगवान् की कृपा-अनुकम्पा’ (सिद्धयोग की भाषा में शक्तिपात)। इस प्रकार साधुपुरुषों को अपना सान्निध्य तथा अखण्डित प्रेम प्रदान करना भी श्रीभगवान्के अवतरण के उद्देश्यों में प्रमुख है (‘अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद् यशः श्रीमद्भागवत)।

श्रीभगवान् परमेष्ठी भूमा नारायण के अन्यान्य अवतरणों की अपेक्षा द्वापरान्त में भगवान् श्रीकृष्ण के आविर्भाव में उनका विशुद्ध योगैश्वर्य अधिक प्रख्यापित व प्रकाशित हुआ है। अखिलात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य चारु चरित्र उनके परम योगेश्वर्य से सम्पन्न रहे हैं। श्रीभगवान् की दिव्य योग विभूतियाँ उनकी परम पुण्यप्रदा लीला-चरित्रावलियों से सहज ही स्रवित होती रही हैं।वस्तुतस्तु भगवान् का कृष्णावतार विशुद्ध योगावतार है, ऐसा कहना अत्युक्ति नहीं।

विषय की स्पष्टता के लिए ‘योगैश्वर्य’ शब्द को समझना आवश्यक है। यह शब्द ‘योग’ + ‘ऐश्वर्य’, इन दो पदों के मेल से बना है। योग का अर्थ ‘समाधि’ है तथा ऐश्वर्य का अर्थ ‘ईश्वर होना’ है।‘ऐश्वर्य’ शब्द ‘ईश्वर’ शब्द से बना है। इसका अर्थ है ‘शासन करने वाला’। इस प्रकार ‘शासन करने वाला होना’ ही ‘ईश्वर होना’ या ‘ईश्वरत्व’(ईश्वरपना) है।ईश्वर होना सर्वसमर्थ होना है। कर्तुम्, अकर्तुम् अन्यथाकर्तुम् आदि में ईश्वर शक्त है। ईश्वर प्रकृति का अधिपति है। ज्ञान, वैराग्य और बल आदि की पराकाष्ठा है (‘सा काष्ठा सा परा गतिः’ (कठोपनिषद्)।

पूर्ण महायोगियों के लिए भी यह सम्पूर्ण ऐश्वर्य साध्य है। यह योगजन्य है। शास्त्रीय पद्धति के अनुसार क्रमशः षट्चक्रों में संयम सिद्ध करता हुआ योगाभ्यासी पञ्चतत्त्व विजय कर लेता है तथा आज्ञा चक्र में मन बुद्धि के धर्मोंकोसम्यक् जानकरसहस्रार में आत्मबोध प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार योगी स्थूल पृथिवी तत्त्व से लेकर अव्यक्त मूल प्रकृति पर्यन्तका स्वामित्व प्राप्त कर लेता है। प्रकृति में कोई भी परिवर्तन करने की, यहाँ तक कि सृष्टि का निर्माण तथा संहारादि करने का सामर्थ्य पूर्ण योगियों में हुआ करता है। सम्पूर्ण योग विभूतियाँ यथा;प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व, अणुत्व, विभुत्व आदि योगियों को हस्तामलकवत् रहती हैं। यह योगियों का सर्वसामर्थ्य है। ईश्वर अनादि महायोगी है,अनादि सिद्ध है।

जगदात्मा अखिल लोकपावन भगवान् श्रीकृष्ण के विषय में श्रीमद्भागवत तथा अन्यान्य पुराणों में उनके परात्पर होने का निर्देश मिलता है। श्रीमद्भागवत में और अन्यान्य पुराणों में श्रीकृष्ण का वर्णन पर-पुरुष के रूप में किया गया है इसलिए वह अनादि काल से ही महासिद्ध हैं,इसमें कोई संशय की बात नहीं। योगदर्शन में भगवान् पतंजलि देव ने ईश्वर का लक्षण‘क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः’कहकर किया है।इस पर श्रीभगवान् व्यासदेव जी भाष्य करतेहुए लिखते हैं ‘यथा मुक्तस्य पूर्वा बन्धकोटिः प्रज्ञायते नैवमीश्वरस्ययथा वा प्रकृतिलीनस्योत्तरा बन्धकोटिः सम्भाव्यते-नैवमीश्वरस्यसतु सदैव मुक्तः सदैवेश्वरः इति’अर्थात् जो लोग बन्धनों को काटकर मुक्ति को प्राप्त होते हैं वे पहले बन्धन में है और जो योगी लोग प्रकृतिलीन हैं और अपने आपको कैवल्य पद में विलीन समझ रहे हैं वे बाद में पुनः बन्धकोटि के अन्दर आ जायेंगे किन्तु ये सारे के सारे लक्षण ईश्वर के साथ बिल्कुल नहीं होते। इसलिए वह ईश्वर हमेशा ही मुक्त है और हमेशा ही ईश्वर है। उसका ऐश्वर्यसाम्यात्स्थ विनिर्मुक्त है। अतः अखिल आत्मा भगवान् श्रीकृष्ण का ऐश्वर्य भी साम्यात्स्थ विनिर्मुक्त है। इसलिए उनका आदि महासिद्ध होना अनायास ही सिद्ध है।

भगवान् श्रीकृष्ण को लीलावतार कहते हैं किन्तु उनके जीवन में घटित होने वाली घटनायें उनको एक सरल ऐश्वर्य सम्पन्न योगिराज का ही अवतार सिद्ध करती हैं। जन्म से लेकर स्वधामगमन तक उनकी जितनी भी लीलायें हुई हैं उन सभी में से एक-एक से योग टपकता है। उनका कारावास में जन्म लेना और जन्म भी एक अद्भुत जन्म, जिस प्रकार संसार में कोई बालक जन्म नहीं लिया करता उसके अतिरिक्त विलक्षण ढंग से अपनी माता के सामने अपने दिव्य चतुर्भुज रूप से प्रकट होना; जैसा कि श्रीमद्भागवत में लिखा है –तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणंचतुर्भुजं …..वसुदेव ऐक्षत’ अर्थात् वसुदेवजी ने देखा कि उनके सामने किरीट, कुण्डल एवं वरमाला धारण किये हुये मेघ वर्ण सुन्दर श्याम शरीर वाला और अपनी चारों भुजाओं में शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुये एक सुन्दर बालक खड़ा है। इसी प्रकार से देवकी ने उनके रूप को देखा और उस अद्भुत रूप को देखकर उस महायोगिराज के तेज को सहन न कर सकी और उसने विनम्र भाव से प्रार्थना की कि ‘हे प्रभो इस धारणा ध्यान के लिए मंगलमय जो आपके दिव्य चतुर्भुज स्वरूप हैं वह हम हाड़-माँस चमड़े के शरीर धारण करने वाले साधारणमनुष्य लोक के जीव इसके अधिकारी नहीं हैं। इस समय आपने मेरे ऊपर से जन्म लेने का अभिनय किया है।इसलिए अपने इस अलौकिक दिव्य रूप तेज को छिपाकर साधारण मनुष्य रूप में मेरे सामने प्रकट होइये’। अपनी माता देवकी को इस प्रकार भयभीत देखकर अपने उस दिव्य चतुर्भुज रूप से अन्तर्हित होकर उसके सामने अपनी योगमाया से श्रीभगवान् बालक रूप में प्रकट हो गये। इस प्रकार अपने अद्भुत दिव्य चतुर्भुज रूप को माता के सामने प्रकट करना और फिर उसको छिपा लेना ये उनकी स्वाभाविक योग शक्ति का अद्भुत प्रभाव था। किन्तु एक साधक सिद्ध योगी के लिए यह क्रिया अपनी साधना के बल पर आधारित है और उसको संयम के द्वारा ही ऐसा करना पड़ेगा। किन्तु आदि महासिद्ध श्रीकृष्ण के लिये यह न के बराबर सहज कर्म था।

कंस के कारागार से श्रीवसुदेवजी भगवान् बाल रूप श्रीकृष्ण को गोकुल पहुँचा आये थे। कंस के कारागार के संकल्प, अनादि महासिद्ध श्रीकृष्ण के लिये कारागार के दरवाजों का अपने आप खुल जाना और वसुदेव के लौट आने पर पुनः उसी प्रकार से बन्द हो जाना यह उनके स्वाभाविक शक्ति संकल्प का ही परिणाम था। उनके लिये यह कोई कठिन कार्य नहीं था। केवल मात्र संकल्प में आना ही उन सब कामों का जनक था।वे स्वयं सत्य स्वरूप हैं। श्रीमद्भागवत के दसवें स्कन्ध के दूसरे अध्याय में जहाँ पर गर्भ स्तुति की गई है वहाँ पर ब्रह्माजी ने उनकी स्तुति करते हुए उनको सत्यात्मक कहा है-सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः’ अर्थात् ब्रह्माजी करबद्ध स्तुति करते हुए उनसे प्रार्थना करते हैं कि ‘सदा सर्वथा सत्य रहने वाले सत्य परायण सत्यात्मक हम आपकी शरण में होते हैं’। इसलिए सत्य दरवाजों का खुल जाना और उनके लौट आने पर फिर बन्द हो जाना एक बहुत साधारण कर्म था किन्तु यह शक्ति साधक योगी के लिये बड़ी कठिन साधना के बाद प्राप्य है।

इसके बादभगवान् की गोकुल लीलायें आरम्भ होती है। नन्दरायजी ने उनका जन्मोत्सव मनाया। गीत, वाद्य आदि के सब उपक्रम हुए और उसके बाद भी जिस समय नन्दरायजी कंस को वार्षिक कर देने के लिये गये हुये थे उसी सुअवसर को पाकर पूतना सुन्दर रूप धारण कर गोकुल में आ गई और धूम-धाम करके नन्द के घर में पहुँची और अनायास ही बालक रूप में छिपे उस परम योगेश्वर को अपनी गोद में लेकर अपने विषमय स्तनों का पान कराया किन्तु परिणाम कुछ भी नहीं निकला प्रत्युत श्रीकृष्ण के शरीर पर असह्य विष का कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वे जैसे के तैसे अपने दिव्य स्वरूप में अमर रहे और खेलते रहे। इसके विपरीत पूतना के प्राण पखेरू उड़ गये एवं श्रीकृष्ण के संकल्प से उसने सद्गति पायी। यह उस अनादि महासिद्ध की सहज वशिता थी जिसमें पंच महाभूतों पर पूर्णाधिकार था जिसमें उनको किसी प्रकार की कोई साधना करने की आवश्यकता नहीं पड़ी, क्योंकि यह उनका सदैव ईश्वरः सदैव मुक्तः कथनानुसार सहज ही है । यद्यपि साधन करने वाला योगी साधन सिद्धता को पाकर इस शक्ति को प्राप्त कर लेता है किन्तु यह उनकी साधन सिद्धता है और अनादि महासिद्ध श्रीकृष्ण का यह सहज वशीकार है।

संकट भंजन जगदात्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपने पालने में सो रहे थे। कुछ समय बाद उनकी आँख खुली। वह भूख के कारण दूध पीने की इच्छा रखते हुए रोने लगे। काफी समय तक माता यशोदा उन्हें देख नहीं पायी। माता की इस उपेक्षा के कारण भगवान् ने थोड़ा-सा कोप का अभिनय किया और पास में खड़े हुए एक बड़े भारी संकट अर्थात् बैलगाड़ी को बल से पैर मार कर तोड़ डाला। उस पर काफी दही दूध रखा था वह बर्तन भांड़ों के टूटजाने के कारण पृथ्वी पर फैल गया। सभी बृजवासियों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी भारी गाड़ी सहसा कैसे टूट गयी। भगवान् श्रीकृष्ण के बालसखा छोटे-छोटे बच्चे अपनी तोतली जुबान से नन्द बाबा और यशोदा माता को बतलाने लगे कि तुम्हारे लाला इस कन्हैया ने गुस्से में आकर पैर मारकर इस गाड़ी को तोड़ दिया है। सभी बूढ़े-बड़ों के मन में पूरा-पूरा विश्वास नहीं हो पाया क्योंकि श्री कृष्ण तो अभी बिल्कुल छोटे बच्चे थे। अभी तो उन्होंने करवट बदलना ही सीखा था। उनके पैर मारने से संकट का टूट जाना असम्भव- सी बात थी। किन्तु बलों के भंडार अखिल आत्मा श्रीकृष्ण के लिये ये सब खेल जैसी बात थी। उन्होंने अपनी इस अल्पीयसी अवस्था में ही संकट को पैर मार कर अपने अतुल बल का परिचय दे दिया। यह उनका बिना किसी साधना के सहज ऐश्वर्य था। दूसरे योगी इस बल को बड़ी भारी कठिन साधना के द्वारा प्राप्त किया करते हैं तब इतने बन पाते हैं।

भगवान् के इससे आगे के चरित्रों के अन्दर तृणावर्त राक्षस की कथा है। यह तृणावर्त वात रूपधारी कंस का एक नौकर था जिसने झंझावात का रूप धारण कर गोकुल में बड़ा भारी तूफान मचा दिया। सम्पूर्ण गोकुल गाँव ब्रज रज से भर गया। उस झंझावात में एक दूसरे के शरीर नहीं दिखाई देते थे। महाअन्धकार छा गया था। माता यशोदा ने अपने बाल गोविन्द को एक ओर जमीन पर बिठा दिया था। राक्षस तृणावर्त का दांव लग गया और उनको उठा कर आकाश में ले गया। तृणावर्त के मनोभाव जानकर भगवान् ने अपने आपको रुई के समान हल्का बना लिया और उसके वेग के साथ- साथ आकाश में चले गये और तृणावर्त के गले को पकड़े बालक के वेश में छिपे हुए उस दिव्य तेज ने आकाश में पहुँच कर और अपने हाथों में तृणावर्त के गले को पकड़कर गरिमा सिद्धि के प्रयोग से अपने आपको इतना भारी बना लिया कि श्रीमद्भागवत में व्यासदेव जी को यह शब्द कहने पड़े-‘तमश्मानं…गले गृहीत उत्स्रष्टुं नाशक्नोदद्भुतार्थकम्’अर्थात् उस तृणावर्त राक्षस ने भगवान् श्रीकृष्ण को पत्थर के समान भारी समझा। भगवान् ने उसके गले को पकड़ रखा था। भारी प्रयत्न करने पर भी वह अपना गला नहीं छुड़ा सका और अन्त में उसको मृत्यु के मुख में जाना ही पड़ा।

जगदात्मा की ये सारी लीलायें योग से ही सम्बन्ध रखने वाली हैं। अन्य जितने अवतार हुए उनमें से किसी अवतार रूप में भी कहीं पर इतने विशेष ऐश्वर्य का प्रदर्शन नहीं किया कि उसके चरित्रों से यौगिक ऐश्वर्य झलक पड़े। भगवान् श्रीकृष्ण की सारी लीला योग ऐश्वर्य से परिपूर्ण है किन्तु येसबके सब कार्य उनमें संकल्प मात्र के थे और यही सब उनकी अनादि काल से चलने वाली सिद्धता है।

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