“छत पर मेरा घोंसला था,
घोंसले में दो बच्चे थे,
बच्चे चुं चूं करते थे ,
पर अब वो वहां नहीं हैं,
क्या तुमने उन्हें कहीं देखा है,”
“हम गौरैया के घर नहीं ले सकते, जैसे-जैसे पक्षियों का आवास कम हो रहा है, राकेश खत्री घोंसले बनाने और दूसरों को भी ऐसा करना सिखाने के मिशन पर हैं । आज के समय में हमारे आसपास वह पक्षियों की चहचहाहट, गौरैया की आवाज़ शायद ही सुनाई देती है, इस समय यह चहचहाहट ग्रामीण इलाकों या घने जंगलों में सुनने को मिलती है, क्योंकि शहरों में बन रहीं बड़ी बड़ी बिल्डिंग और घरों ने कहीं ना कहीं उन नन्हे पक्षियों का आशियाना छीन लिया है, जो कभी हमें हमारे आसपास उड़ते हुए नजर आते थे । दिल्ली के मयूर विहार के रहने वाले राकेश खत्री पक्षियों की चहचहाहट को वापस लाने का प्रयास कर रहे हैं. अब तक वे ढाई लाख से ज्यादा घोंसले बना चुके हैं। वे पक्षियों के लिए घोंसला बनाने का काम 14 सालों से कर रहें हैं और इन 14 सालों में पूरे देश में अब तक ढाई लाख से ज्यादा पक्षियों के लिए घोंसले बना चुके हैं जिसके कारण उन्हें ‘नेस्ट मैन ऑफ इंडिया‘ भी काहा जाने लगा है । ‘’
उनकी कहानी उन्हीं की जुबानी:
मेरा बचपन शुरूआती दिनों मैं आगरा और फिर पुरानी दिल्ली की गलियों मैं बीता है भीड़ भाड़ से भरी सड़कों में साफ़
सफाई का कोई विशेष इंतजाम नहीं होता था । केवल दो चीजों के लिये हम लोग इंतज़ार किया करते थे २६ जनवरी की
परेड और रामलीला । रामलीला में निकलने वाली दोपहर और शाम की झांकियो की साथ सबसे बड़ा खेल होता था छत पर टोकरी लगा कर उसके नीचे दाना डाल कर एक डंडी से उसे टिका दिया करते थे जैसे ही चिड़िया यानी
गौरिया आती थी रस्सी खींच देना उसका उस टोकरी मैं बंद हो जाना और फिर पकड़ कर उसे किसी कलर या लाल रंग की लिपिस्टिक से पोत कर छोड़ देना और शाम को इन्ही बातो पर एक लप्पड़ खाना । लेकिन यह पता नहीं था कि यही चिड़िया मुझे और मेरे घोंसले बनाने की लगन को एक दिन बच्चो की कोर्स की किताब में ले आएगी और इंटरनेशनल ग्रीन एप्पल अवार्ड के लिये लंदन के हाउस ऑफ़ कॉमन्स मैं खड़ा कर देगी, और साथ ही लिम्का बुक के रिकॉर्ड मैं पहुंचा देगी । यह मालूम ही नहीं पड़ा कि कब बचपन उन गलियों से निकला और अशोक विहार के हरे भरे इलाके मैं चला गया । मकानो के पीछे १० एकड़ मे
फैला अमरुद और शहतूत का बाग़ सारा दिन उस दोपहर मैं काई डंडा खेलना और किरमिच की बाल से क्रिकेट उस समय का टी १० खेलते हुए कच्चे अमरुद खाना और हैंड पंप के पानी से प्यास बुझाना कुछ फरक नहीं पड़ता था । मौसम और पर्यावरण बहुत अच्छा था । देखते देखते ९० के दशक से ही सब डांवाडोल होने लगा ऋतुऐं आगे बढ़ने लगी, मेडक आवाज निकलना भूलने लगे,
जुगनू की चमक कहीं खो गई, पतझर को आने की जल्दी थी और सावन को जाने की जल्दी, गर्मी बढ़ती लगी और सर्दी घटने लगी लेकिन गौरिया मेरे दिल से कभी नहीं निकली । यहाँ भी मैं उसका घोसला ढूंढ़ने मैं उस्ताद था।
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